साठ गाँव बकरी चर गई : नवीन चौरे मुक़म्मल
'साठ गाँव बकरी चर गयी'
राजा भयंकर सिंह को एक दिन आया विचार
‘बहुत दिनों से नहीं किया शिकार
चहल-पहल से दूर,
अपने महल से दूर
चलते हैं शिकार पे,
तलवार की धार पे
कोई तो सर आएगा,
इस बार एक न एक शेर तो अवश्य मारा जाएगा।‘
बस फिर राजा ने ठान ली,
तलवार- म्यान ली
मंत्री को बुलाया,
बंदोबस्त कराया
भयंकर सिंह घोड़े पे सवार,
हो गए तैयार;
साथ में रख्खे कुत्ते तीन, कारण सुरक्षा,
इस बार भयंकर सिंह ने सैनिकों को नहीं बख़्शा
हर सैनिक उदास था,
तापमान पचास था
दिन था शनीचर,
जंगल के भीतर
कुत्ते गुर्राए,
भयंकर सिंह घबराये;
घोड़ा ले के सरपट भागे
रूककर जो देखा आगे
शेर खड़ा था मुँह फैलाये
राजाजी पर घात लगाये
सन्न रह गए भयंकर सिंह,
ना कुछ बोले, ना सुन पाये।
सैनिकों ने बचाया,
शेर को भगाया,
राजा को उठाकर,
वापस घोड़े पे बैठाया,
शिकार के नाम पे मार के मोर,
प्रस्थान किया महल की ओर।
किंतु लौटते में रात हो गयी........
लौटते में रात हो गयी,
भारी बरसात हो गयी
जंगल डरावना,
भरपूर संभावना
अनहोनी घट जाये,
कौन सा संकट आये
रास्ता सुनसान था.……
पर राजा को ध्यान था।
रास्ता सुनसान था, पर राजा को ध्यान था
‘रहता करीब है
आदमी गरीब है’
"उचित होगा रात वहीं पर ठहर जायें
निकल दिन के पहले पहर जायें।"
बस फिर राजा पहुँचे ग़रीब के घर
ग़रीब को आश्चर्य
हकबकाया, सकपकाया,
होश में आया फिर घबराया
ले गया राजा को भीतर
हाथ जोड़े, पाँव धुलाये,
"अहो! भाग्य मेरे जो आप यहाँ आये।
जो कुछ है मेरा, आपके समक्ष है
सेवा करूँ आपकी, बस यही लक्ष्य है
झोपड़ी छोटी है
खाने को रोटी है,
दाल बघरी है
और संपत्ति के नाम पर
केवल ये बकरी है। "
राजा बोले
"अब गरीब से कैसी आशा,
पर भूखें है खासा
सो जो कुछ है ले आओ,
पर भोजन तो करवाओ
दो रोटी खायेंगे, धरा पे लेट जायेंगे। "
पर राजा थे भूखे भयंकर,
झट से सब कर गए अंदर
कुछ न छोड़ा गरीब की ख़ातिर
पानी पीकर बोले फिर,
"भोजन तो अब समाप्त है
और नींद हमपे व्याप्त है
चारपाई पे सोयेंगे, लालटेन बुझा देना
दाल अच्छी थी, थोड़ी तुम भी खा लेना।"
और इस तरह राजा जी सो गये........
राजा जी सो गये,
चारपाई के हो गये
सैनिक देते रहे रात भर पहरा,
कोई ऐरा-ग़ैरा
जानवर आ न जाये,
राजा को खा न जाये
सोया ज़मीन पे बिछा के दरी,
ग़रीब की भूखे पेट ही रात गुज़री।
सुबह उठकर, मुँह धो कर
ग़रीब खातिरदारी से ख़ुश होकर,
बोले राजा जी
"खुश हैं आज भयंकर सिंह,
ईनाम में तुमको देते हैं
साठ गाँव पत्ते पे लिख के
और विदाई लेते हैं। "
और इस तरह राजा हो गए विदा
ग़रीब खड़ा-खड़ा देखता रहा
मन में हलचल उठी,
बांछे खिल उठी
ग़रीब था प्रसन्न,
'उगाऊँगा अन्न
भरपेट खाऊँगा
रास भी रचाऊँगा
रहूँगा शान से
बड़े इत्मीनान से
बनवाऊँगा महल’
पर दिल गया दहल.…
जब देखा बकरी कुछ चबा रही है,
‘वही पत्ता खा रही है
जिसपे लिखे थे गाँव साठ
अब कैसे होंगे सारे ठाठ’ ???
“सपने सब चौपट कर गयी
हाय! साठ गाँव बकरी चर गयी”।’
हाय! साठ गाँव बकरी चर गयी
हाय! साठ गाँव बकरी चर गयी … … …
✍️ नवीन चौरे मुक़म्मल
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