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मार्च, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

औरतें/ रमाशंकर यादव 'विद्रोही'

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कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी, ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है । और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं, ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है। मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ क्या जल्दी है । मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ औरतों की अदालत में तलब करूँगा। और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा । मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा , जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं । मैं उन डिग्रियों को भी निरस्त कर दूंगा , जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं । मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा , जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी । मैं उन औरतों को जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर  और चिता में जलकर मरी हैं , फिर से ज़िंदा करूँगा  और उनके बयानात दोबारा कलमबंद करूँगा । कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया? कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया? कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई? क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ , जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं, और जब बाहर निकली तो वह कहीं उसकी लाश निकली जो खुले मे...

'औरत ' नुक्कड़ नाटक - जन नाट्य मंच/सफदर हाशमी /ईरानी कविता - मर्जिया उस्कुई अहमदी

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  मैं एक माँ एक बहन एक अच्छी पत्नी एक औरत हूँ । एक औरत जो न जाने कब से नंगे पांव रेगिस्तानों की धधकती बालू में भागती.. ..... रही है। मैं सुदूर उत्तर के गाँवों से आयी हूं  एक औरत जो न जाने कब से  धान के खेतों और चाय के बागान में  अपनी ताकत से ज्यादा मेहनत करती आयी है। मैं पूरब के अंधेरे खंडहरों से आयी हूँ  जहाँ मैंने न जाने कब से नंगे पाँव  अपनी मरियल गाय के साथ खलिहानों में दर्द का बोझ उठाया है। उन बंजारों में से जो तमाम दुनिया में भटकते फिरते हैं। एक औरत जो पहाड़ों की गोद में बच्चे जनती है  जिसकी बकरी मैदानों में कहीं मर जाती है और बैन करती रह जाती है। मैं वह मजदूर औरत हूँ जो अपने हाथों से फैक्ट्री में भीमकाय मशीनों के चक्के घुमाती है वह मशीनें जो उसकी ताकत को  ऐन उसकी आँखों के सामने  हर दिन नोंचा करती है एक औरत जिसके खुने जिगर से खूंखार कंकालों की प्यास बुझती है,  एक औरत जिस का खून बहने से  सरमायेदार का मुनाफा बढ़ता है। एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहया शब्दावली में एक शब्द भी ऐसा नहीं  जो उसके महत्व को बयान कर सके तुम्हारी शब्...

#महिला / #नारी /#औरत #तुम्हें_डर_हैं / त्रिलोकी

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  लाॅकडाउन के दौरान 31/03/2020 को मेरे द्वारा रचित एक कविता जो रमाशंकर यादव 'विद्रोही', गोरख पाण्डेय,ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनाओं से प्रेरित है । आज 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' के अवसर पर आपके समक्ष पेश है -- तुम्हें डर हैं  कि वे अपनी कौमार्यता भंग होने का नहीं देंगी प्रमाण । नहीं लगायेंगी माथे पर निशान । तुम्हें डर हैं  कि वे एक दिन सिंदूर लगाना छोड़ देंगी।1। तुम्हें डर हैं  कि वे अपनी रफ़्तार को नहीं लगायेंगी लगाम । लम्बे कदमों से तुम्हें करेंगी परेशान। तुम्हें डर हैं  कि वे एक दिन साड़ी पहनना छोड़ देंगी।2। तुम्हें डर हैं  कि वे अपने आने -जाने का नहीं देंगी अपराधी पैग़ाम। नहीं सुनाएगी पाजेब की झंकार। तुम्हें डर हैं  कि वे एक दिन पायल पहनना छोड़ देंगी।3। तुम्हें डर हैं  कि वे अपनी बेबसी की नहीं रखेंगी पहचान। नहीं होगी वे बेबस और लाचार। तुम्हें डर हैं  कि वे एक दिन लंबे बाल रखना छोड़ देंगी।4। तुम्हें डर हैं कि वे अपनी यातना, दुर्दशा की नहीं पहनेंगी खुद जंजाल। नहीं गिड़गिड़ाएगी , नहीं लगायेंगी गुहार। तुम्हें डर हैं  कि वे एक दिन हसुली,बाली...